थिएटर के कलाकारों की बात ही अलग होती है।
कुछ दिन पहले खबर आयी कि शाहरुख खान का बेटा, श्री देवी की बेटी और शाहिद कपूर का भाई फिल्मों में आने वाले हैं। मीडियाई चैनल और अखबारबाज़ तो जैसे खुशी में पगला गये। ऐसा लग रहा था जैसे बॉलीवुड की धरती पर एक्टिंग के महा अवतार पैदा होने वाले हैं।
हमने सालों तक अमिताभ बच्चन के सुपुत्र को झेल लिया। हमने जीतेन्द्र के सुपुत्र को भी झेला है। लिंग परिवर्तन कर किसी लड़के से दिखने वाले जैकी श्रॉफ के बेटे को झेल ही रहे हैं।
तमाम स्टार सन एंड डॉटर को झेलने के बाद अब हमको शाहरुख के बेटे, श्री देवी की बेटी और शाहिद कपूर के भाई को झेलने के लिए ताकत इकट्ठी करनी है।
हमारे अंदर राजा के बेटे को राजा स्वीकार करने की मानसिकता अभी मरी ही नहीं। यही मानसिकता भारतीय राजनीति और बॉलीवुड दोनों में मौजूद है।
विधायकों और सांसदों की सीटें पुश्तैनी हो गयी हैं। नेता जी के रिटायर्ड होने या मरने के बाद नेता जी का बेटा ही उनका उत्तराधिकारी बनता है। विधायकी या सांसदी बापौती हो चली हैं और जनता राजा के बेटे को राजा सहज स्वीकार कर रही है। चांदी का चम्मच मुंह में लिए पैदा होने वाले यथार्थ को नहीं समझ पाते इसलिए चाहे राजनीति हो या बॉलीवुड, उपजाऊ जमीन तैयार नहीं हो पाती।
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बॉलीवुड ने अपने दरवाजे बाहरियों के लिए बन्द कर लिए। सुना करते थे कि पहले के कलाकार सिर्फ दस रुपये लेकर मुम्बई आते थे। बेचों, फुटपाथों पर सोते थे। दिन चने खाकर गुजारते थे और रात पाव भाजी खाकर सोते थे। दिन भर काम की तलाश में डायरेक्टरों के आफिसों के बाहर आगे चप्पल घिसते थे। अगर आज के जमाने मे अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा या रजनीकांत होते तो क्या वे एक्टर हो पाते? ये किसी डायरेक्टर के पास जाकर कहते कि उन्हें हीरो बनना है, क्या रिएक्शन होता डायरेक्टर्स का? एक बार कल्पना कीजिये।
लम्बे समय से बॉलीवुड में कोई अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार या शाहरुख खान नहीं आया जो अपनी मेहनत के बल पर शिखर तक पहुंचा हो। पूरे पन्द्रह साल बाद बॉलीवुड नवाजुद्दीन सिद्दकी की क्षमताओं को पहचान पाया । पीयूष मिश्र जैसे अभिनय के महारथी और थिएटर कलाकार छोटी छोटी भूमिकाओं में बॉलीवुड के दरवाजे पर दस्तक देते रहे पर कोई सुनने वाला ही नहीं था। उम्र बीत जाने के बाद अनुराग कश्यप ने इन पर सबसे पहले ध्यान दिया। सोचिए अगर इन पर समय रहते ध्यान दिया जाता तो एक उम्दा कलाकार बॉलीवुड को बहुत पहले ही मिल जाता।
थिएटर कलाकारों को तो भुला ही दिया। थिएटर के कलाकारों की बात ही अलग होती है। उनका रोम रोम एक्टिंग करता है। लाइव परफॉरमेंस में गलतियों की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती। एक्टिंग से लेकर डायलॉग डिलेवरी तक सब कुछ नीट एंड क्लीन होता है। मंच पर री-टेक का मौका नहीं मिलता। यूं समझिए कि थिएटर भट्टी है, जिसमें तप तप कर कलाकार कुंदन बनता है पर स्टार औलादों की बात कुछ और है।
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ठीक से चलना भी नहीं सीख पाते तब तक डायरेक्टर्स की पारखी नजरें उनमें छुपी प्रतिभा को पहचान लेती हैं। उनके बड़े होने का इंतज़ार किया जाता है। दो महीने की मामूली सी एक्टिंग क्लास के बाद उनके लॉन्चिंग की तैयारियां शुरू की जाती हैं। मार्केटिंग की जाती है, भांड मीडियाई चैनलों पर रकम खर्च कर के धूम-धड़ाकों, ढोल नगाड़ों के साथ ऐसा प्रचार-प्रसार किया जाता है कि जैसे देश को कोई महान कलाकार मिलने जा रहा हो। श्रीदेवी जैसी कलाकार तो इस काम के लिए बाकायदा प्रोफेशनल एजेंसी का सहारा ले रहे हैं।
माता पिता के स्टारडम की चकाचौंध और प्रोजेक्ट करने के तरीकों में हमारी नजरें भी चुंधिया सी जाती हैं। हमें स्टार औलादों में बॉलीवुड के भावी सितारें नजर आने लगते हैं और हम सहज स्वीकार कर लेते हैं कि राजा का बेटा राजा ही होगा।
अफसोस है कि डायरेक्टर्स की यह कला पारखी नजरें थिएटर कलाकारों को परख नहीं पाती या परखना नहीं चाहतीं इसलिए थिअटरों के मंचों पर अपनी पूरी जवानी गलाने वाले दिग्गज कलाकार बेनामी में मर-खप जाते हैं। पहले थिएटर बॉलीवुड के लिए कलाकार सप्लाई करते थे, आजकल स्टारों की पत्नियों की कोख सप्लाई कर रही हैं।
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किसी ने मुझसे पूछा कि क्या बॉलीवुड बाहुबली जैसी फिल्में बना पायेगा ?
मैन कहा, नहीं, कभी नहीं।
क्यों ?
दरअसल बॉलीवुड एक बन्द निकाय का रूप ले चुका है। कुछ परिवारों और केम्पों की बापौती हो गया है। यहां फिल्में स्टार पुत्र-पुत्रियों को इंट्रोड्यूस कराने के लिए बनती हैं या फिर उनका करियर सुधारने के लिए। कुछ फिल्मकार अपनी आधी जिंदगी कुछ सितारों की स्तुति गढ़ने में गुजार देते हैं और बाकि की आधी उनकी औलादों को स्टार बनाने में।
यहां फ़िल्म बनाने की बड़ी सरल विधि है। सबसे पहले हॉलीवुड से पका-पकाया माल उठाइये। किसी स्टार औलाद की आंच पे पकाइए। फिर उसमें नग्नता व फूहड़ता का छोंक लगाइए और परोस दीजिए। बेशक बाद में दर्शक अपना सर पीटते हुए सिनेमा हॉल से निकले, यह अलग बात है। सेक्स, शराब और फूहड़ संगीत ही सिनेमा गढ़ने का अचूक फार्मूला बन चुका है। छोटे होते कपड़े और sex before marriage की लालसा का आगाज हो चुका है जैसे अगली सिनेमाई क्रांति का बिगुल पर्दे से नहीं बिस्तर से बजना शुरू होगा।
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यहां a wednesday जैसी दमदार फ़िल्म बनाने वाले नवागन्तुक फिल्मकार का स्वागत करने के बजाय उसे बेइज्जत कर के हतोत्साहित किया जाता है। साजिद खान द्वारा एक अवार्ड फंग्शन में नीरज पांडे का सिर्फ इसलिए मजाक बनाया जाता हैं कि उन्होंने पुराने पेंट शर्ट पहन रखें हैं। पूरा बॉलीवुड खामोशी से यह तमाशा देखता रहता है और बाद में उसी समारोह में a Wednesday को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का और नीरज पांडे को सर्वश्रेष्ठ डायरेक्टर का अवार्ड मिलता है क्योंकि कपड़े नहीं काम बोलता है। यह बात शायद साजिद खान नहीं जानते हैं।
गांधी भारतीय हैं पर उन पर फ़िल्म बनाने का सबसे पहला विचार एक विदेशी रिचर्ड एटनबरो को आता है। प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की भव्यता के दर्शन बॉलीवुड के बहुत बाद में विकसित हुए दक्षिण भारतीय सिनेमा की फ़िल्म बाहुबली में होते हैं।
“दबंग” सलमान खान की फ़िल्म है इसलिए सर्वश्रेष्ठ नकारात्मक भूमिका का अवार्ड उलूल-जुलूल हरकतें करने वाले सोनू सूद को मिलता है। “रक्त चरित्र” में बुक्का रेड्डी के किरदार को जिंदा कर देने वाले कलाकार अभिमन्यु सिंह को नजर अंदाज कर दिया जाता है। लगान और मुन्ना भाई MBBS जैसी सुपरहिट फिल्मों में बतौर हीरोइन काम करने वाली ग्रेसी सिंह चार-पांच फिल्मों तक सिमट कर रह जाती हैं और बूम जैसी नंगी फिल्मों से शुरुवात करने वाली कैटरीना कैफ आज एक्टिंग के शिखर पर है।
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पाकिस्तानी कलाकारों को पलक-पाँवडों से न्यौता दिया जा रहा है जबकि बॉलीवुड में दमदार भूमिका करने के बाद भी भारतीय कलाकारों की कोई पूछ नहीं हो रही है। ग्रेसी सिंह जैसी अभिनेत्रियां फिल्मों की बाट जोहते-जोहते गुमनामी में खो जाती है और माहिरा खान जैसी अभिनेत्रियां जिन्होंने खुद अपने देश पाकिस्तान के सिनेमा में कोई तीर नहीं मारा, बॉलीवुड का भविष्य बताई जाती हैं। लिहाजा बॉलीवुड के कलाकार दक्षिण का रुख कर रहे हैं।
भारतीय गीत-संगीत का तो और भी बुरा हाल है। पाक गायकों को आयातित किया जा रहा है। भारतीय गायक हाशिये पर डाल दिये गए हैं।
अच्छे फिल्मकारों और कलाकारों के लिए दरवाज़े बन्द कर लिए गए हैं। नव विचारों का सृजन नहीं हो पा रहा। अंदर फूहड़ता और नग्नता की उठक पटक चल रही है और बाहर छन-छन कर सिर्फ गंदगी और दुर्गंध आ रही है। बूढ़े हो चले नायक आज भी रसिक प्रेमियों की भूमिकाएं कर रहे हैं, जवान नायकों की कमी खल रही है। मार्शल आर्ट्स में माहिर स्टंट हीरो विद्युत जमवाल की क्षमताओं का बॉलीवुड दोहन नहीं कर पा रहा और फ़िल्म दस में खम्भे से उछलकर सिर्फ एक लात घुमाने वाली शिल्पा शेट्टी की तुलना लारा क्राफ्ट की एंजेलिना जॉली से की जाने लगती है। सारा खेल चेहरे की बनावट और बदन के भूगोल का है ।
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हॉलीवुड में दुनिया भर के तमाम फिल्मकार और कलाकार अपने अपनी सिनेमाई रचनाओं और एक्टिंग से जगह पाते जबकि दुनिया भर में बॉलीवुड नचनियों और गवैय्यों का सिनेमा कहा जाता है या फिर थीफ्सवुड (चोरों का गढ़) के नाम से बदनाम है। कहानी से लेकर सीन डायलॉग तक यहां सब कुछ चुराया जाता है।
डेविड धवन की “पार्टनर” हॉलीवुड फिल्म “हिच” की हूबहू कॉपी है। इसीलिए अमेरिकन फ़िल्म कम्पनी सोनी एंटरनमेंट ने डेविड धवन पर बिना राइट खरीदे फ़िल्म बनाने के लिए केस ठोक देती है। पर दुर्भाग्य देखिए जहां “इटालियन जॉब” जैसी फिल्मों के राइट्स खरीदे जाते हैं वहां अब्बास-मस्तान “प्लेयर्स” जैसे हादसे रच डालते हैं। जिस बॉलीवुड में अमेरिकी सिनेमा से माल चुराकर फ़िल्मकार होने मुगालते पालकर घूमने वाले फिल्मकार हों, जहां स्टार संस एंड डॉटर्स को कलाकार बनाने की भरकस असफल कोशिश करने वाले निर्देशकों की लम्बी चौड़ी फौज मौजूद हो और जिन्होंने अपने दरवाजे बाहरी कलाकारों के लिए बन्द कर रखे हो वहां आपको लगता है कि बाहुबली जैसा भव्य और आकर्षक सिनेमा रचा जाएगा? मुझे तो नहीं लगता। इसके लिए या तो आपको हॉलीवुड की ओर मुंह ताकना होगा या फिर दक्षिण भारतीय सिनेमा पर निर्भर रहना पड़ेगा।
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बॉलीवुड के ऐसे तंग दमघोंटू माहौल में कोई बाहुबली जैसा सिनेमा रचे जाने की उम्मीद छोड़ दीजिए, जहां यथार्थ सिनेमा में और मनोरंजन सिनेमा दोनों में ही नया सृजन बहुत नामुमकिन सा लगता है।